कहानी संग्रह >> उसका सच उसका सचपुष्पा सक्सेना
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एक रोचक कहानी संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संग्रह की कहानियां
१. | रिश्ते |
२. | इट्स माई लाइफ़... |
३. | उसका सच |
४. | क्षति-पूर्ति |
५. | मुट्ठी भर खुशी |
६. | फ़ैसला |
७. | कंजर |
८. | पंखकटी चिड़िया |
९. | जय श्री राम |
रिश्ते
रात में फ़ोन से बड़ी ताई की मृत्यु की खबर
पा, सुमन अपने
को रोक नहीं सकी थी। सुबह की फ़्लाइट की बुकिंग कराने के बाद एक को भी
नींद नहीं आ सकी। बचपन से बड़ी होने तक की घटनाएं तरतीब, बेतरतीबवार याद
आती रहीं। सच तो यह था, भारत से जुड़े नाते में ताई ही एक सम्पर्क-सूत्र
बच रही थीं, आज ये सूत्र भी टूट गया।
ताऊजी की मृत्यु के बाद मुकुल भइया की हर कोशिश के बावजूद ताई ने अपना घर नहीं छोड़ा। हारकर मुकुल भइया कनाडा बस गए। अम्मा-बाबूजी भी आशीष भइया के साथ नाइजीरिया जा चुके थे। घर के नाम पर तो सबके पास वही घर था, जहाँ ताई अकेली रह गई या छोड़ दी गई थीं। न जाने उनके अंतिम समय में भइया पहुँच पाए या नहीं, मृत्यु की खबर तो किसी पड़ोसी ने दी थी। अब तो पड़ोसी भी सुमन के लिए अजनबी थे। कभी वे सब कितने अपने हुआ करते थे !
घर के दरवाजे पर स्त्री-पुरुषों के बीच से रास्ता बनाती सुमन ताई के पार्थिव शरीर के पास जा पहुँची। आँगन में तुलसी-चौरा के नीचे गोबर से लिपी धरती पर ताई चिरनिद्रा में सो रही थीं। चेहरे पर वही शांति, जिससे सुमन अच्छी तरह परिचित थी। सुमन को देख गोमती चाची आगे बढ़ आईं।
‘‘आ गई सुम्मी ! आखरी बखत तुझे खूब याद करती रहीं जीजी।’’
गोमती चाची के सीने पर सिर धर, सुमन रो पड़ी। गोमती चाची प्यार से उसकी पीठ सहलाती रह गईं। जी भर रो चुकने के बाद सुमन ताई के सिरहाने बैठ गई। पंडित जी गीता का पाठ कर रहे थे।
गोमती चाची ने धीमे से बताया था, ‘‘मुकुल बाहर की व्यवस्था में व्यस्त है, बहू और बच्चों का आना नहीं हो सका।’’
अम्मा-बाबूजी के लिए ताई के शव को रोकने की सलाह पर मुकुल भइया ने ‘ना’ में सिर हिला दिया–
‘‘गर्मी में इतनी देर बॉडी रखना पॉसिबिल नहीं है, पहले ही बहुत देर हो चुकी है। अगर ऐसा ही था तो मॉरचरी में ही बॉडी रखनी थी।’’
मुकुल भइया की बात सही होते भी सुमन को ‘बॉडी’ शब्द चुभ गया। कुछ देर पहले की सजीव ताई अब ‘बॉडी’ भर रह गई थीं।
बचपन से ताई की गोद में खेलते बच्चे आज बड़े हो चुके हैं। ‘राम नाम सत्य’ के साथ ताई ने इस घर से विदा ले ली।
सुमन से नहाने-धोने का आग्रह कर, गोमती चाची अन्य व्यवस्था में जुट गई थीं। बचपन के परिचितों में बस गोमती चाची और गोबरधन काका ही तो शेष थे। बाकी पड़ोसी, अपने-अपने बच्चों के साथ कहीं और जा बसे थे। सात वर्षों में इतना परिवर्तन अप्रत्याशित होते हुए भी सत्य था।
सिर से नहाकर बाहर आई सुमन को घर का सन्नाटा काटने-सा लगा। मुहल्ले की अधिकांश स्त्रियां रस्म निभा वापस नहाने-धोने जा चुकी थीं। रिश्तेदारों के नाम पर था ही कौन ? उतनी-सी देर में गोमती चाची न जाने कब नहा-धो, केतली में चाय लिए आ पहुँची थीं। केतली कमरा-आँगन धो, गोमती चाची के आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी थी।
आँचल से आँसू पोंछ चाची ने एक कप में चाय उँडेल सुमन की ओर बढ़ाई थी–
‘‘ले बेटी, इत्ती दूर से आई है, गला सूख रहा होगा। तेरी ताई होती तो....’’
सुमन हिलक कर रो पड़ी। हाथ में पकड़ा कप छलक गया। प्यार-भरा हाथ पीठ पर धर गोमती ने सुमन को सहारा-सा दिया। चाय का घूँट गले से नीचे उतारती सुमन ने आँसू पोंछ डाले। चारों ओर पसरे सन्नाटे ने सुमन को सहमा-सा दिया।
इस घर से सुमन का बचपन जुड़ा था। ताऊ-ताई, अम्मा-बाबूजी, मुकुल और आशीष भइया के बीच अकेली सुमन, सबकी दुलारी थी। हर तीज-त्योहार पर घर में कितनी रौनक हुआ करती। पड़ोस के किशन चाचा, गोबरधन काका, शांता मौसी सबके परिवार हवन में इकट्ठा होते। ताऊजी सब परिवारों के बुजुर्ग माने जाते। तब ये घर सारे मुहल्ले का केंद्र हुआ करता। धनिया आँगन को लीप-पोत चमका देती। बच्चों को वो लम्बा हवन, खासा उबाऊ लगता, पर ताऊजी के डर से सबको बैठना पड़ता। राखी पर सुमन की बन आती। राखी बाँधने के बदले रुपये देते दोनों भाई अड़ जाते–
‘‘नहीं देंगे रुपया, ये तो पैसा ऐंठने का बहाना है...।’’
आशीष भइया की उस बात पर ताऊजी नाराज़ हो जाते। वो डाँट पड़ती कि बिना हील-हवाला किए दोनों भाई चुपचाप पैसे थमा देते। बाद में भले ही उन पैसों को हथियाने के लिए वे सुमन की लाख मिन्नतें-लड़ाई करते। अपने राखी के रुपयों से सुमन को उन्हें पिक्चर तो दिखानी ही पड़ती थी।
तीज पर अम्मा और ताईजी का उत्साह देखते ही बनता। ताईजी को उस दिन बेटी की कमी खलती, पर सुमन का लाड़ कर वह अपने मन की साध पूरी कर लेतीं। गोटा लगी धानी चुन्नी के साथ सलवार सूट में सुमन की सलोनी काया खिल उठती। झूले की ऊँची पेंग पर कित्ता मजा आता। और, बस थोड़ा और ऊपर पहुँच वह सारे आकाश को मुट्ठी में समेट लेना चाहती। तीज के दिन ही लड़कों को महसूस हो पाता कि लड़की होना कितना अच्छा होता है। गौतम ने तो हद ही कर डाली थी। बहन की साड़ी पहन सुमन को उत्ती ऊँची पेंग पर आकाश छुआने चला था। डर कर सुमन की चीख निकल गई। हाथ में पकड़ा झूला न जाने कैसे छूट गया और वह धम्म से नीचे आ गिरी। माथे से निकली खून की धार पूरी चुन्नी भिगो गई। सब दहशत में आ गए थे। हजार-हजार गालियाँ देती शांता मौसी ने गौतम पर ताबड़तोड़ मुक्कों की बौछार कर दी थी। ताई मुश्किल से रोक पाई थीं–
‘‘क्यों मार रही हो शांता, बच्चे की जान ही ले डालेगी !’’
‘‘मर जाए तो जान छूटे ! अब ये क्या बच्चा है, पूरे सोलह साल का हो गया...’’
‘‘इसीलिए उसे इस तरह धुन रही हो। बहुत हो गया, अब छोड़ो उसे।’’
‘‘नहीं मौसी, गलती मेरी है। सुमन इत्ता डर जाएगी, मैंने नहीं सोचा था। मुझे माफ कर दो माँ।’’ गौतम का स्वर गम्भीर था।
‘‘बस... बस, बहुत हो गया अब भाग यहाँ से।’’ अम्मा ने गौतम को मीठी झिड़की दी थी।
सुमन का हाथ अनायास ही माथे के ऊपर की ओर पड़े दाग पर चला गया। अम्मा को हमेशा दुख सालता–‘‘लड़की के चाँद-से चेहरे पर दाग पड़ गया।’’
सुबोध ने भी एक बार कहा था, प्लास्टिक सर्जरी से इस दाग को हटवा क्यों नहीं देतीं, पर सुमन की इस तरफ कोई रुचि नहीं थी।
घाट गए लोग वापस आ चुके थे। गोमती चाची व्यस्त हो उठीं। शीला जीजी के अंतिम काम में कोई कमी-कसर न रह जाए। पंडित जी के हाथ-पाँव धुला, नीम की पत्तियाँ थमा दी गई। सबका मुँह मीठा कराने के लिए गोमती चाची ने न जाने कब मोतीचूर के लड्डू मँगा लिए थे। मुकुल भइया के चेहरे पर खीच-सी उभर आई थी।
‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं नहाने जा रहा हूँ, उसके बाद सोऊँगा, मुझे डिस्टर्ब न किया जाए...’’
‘‘पर बेटा, तेरह दिन तक तुम्हें ही सब नेम-धरम निभाना होगा... मैं यहीं इसी जगह कम्बल बिछाए देती हूँ...’’
‘‘मुझसे इस सीलन-भरे कमरे में नहीं सोया जाएगा। मैं ऊपर जा रहा हूँ। हो सके तो एक कप चाय भेज दीजिएगा।’’
गोमती चाची की बात अनसुनी कर, सुमन से चाय की फर्माइश कर, मुकुल धड़धड़ा के सीढ़ियाँ चढ़ गया था। गोमती चाची विस्मित ताकती रह गईं। शीला जीजी की आत्मा जब यहाँ आएगी, बेटे को न पा कितना तड़पेगी !
सुमन को याद आया ताऊजी के निधन के बाद पूरे तेरह दिन ताई धरती की शय्या बना, फलाहार पर रही थीं। दबी जुबान से अम्मा ने खाट पर सोने की बात कही तो ताई ने दृढ़ता से ‘ना’ में सिर हिला दिया था। आज ताई की आत्मा की शांति के लिए कौन विधि-विधान पूरे करेगा ? सुमन को तो पहले ही पराया धन कह, हर काम से अलग किया जाता रहा है। अचानक किसी परिचित आवाज ने सुमन को चौंका दिया था–
‘‘क्यों मौसी पड़ गई न सोच में। मुकुल भइया की जगह मैं तैयार हूँ, बिछाओ कुश-शय्या। हमारे मुकुल भइया सात समंदर पार से दौड़े आए हैं, कितना थक गए होंगे ये तो सोचा होता मौसी !’’
अपने आनंदी चेहरे के साथ सामने गौतम खड़ा था। कुरते-पाजामे के ऊपर शाल ओढ़े गौतम के चेहरे पर उम्र शायद अपना असर डालना भूल गई थी।
‘‘ये भली कही, बेटे की जगह पड़ोसी को रस्म निभाने की बात पहली बार सुनी।’’ गोमती का स्वर खिन्न था।
‘‘जब ताई ने मुझे बेटे की जगह दी तो ये फ़र्ज भी मुझे ही निभाना है मौसी। बोलो क्या करना है ?’’ गौतम अब गम्भीर था।
‘‘पूरे तेरह दिन धरती की शय्या पर सोकर नियम से फलाहार पर रह, पूजा-पाठ करनी होगी। तू मांस-मछली भक्षी कर सकेगा ?’’
‘‘मैं क्या कर सकूँगा, उसकी चिन्ता छोड़ दो मौसी, तुम मुकुल भइया को देखो।’’
ताऊजी की मृत्यु के बाद मुकुल भइया की हर कोशिश के बावजूद ताई ने अपना घर नहीं छोड़ा। हारकर मुकुल भइया कनाडा बस गए। अम्मा-बाबूजी भी आशीष भइया के साथ नाइजीरिया जा चुके थे। घर के नाम पर तो सबके पास वही घर था, जहाँ ताई अकेली रह गई या छोड़ दी गई थीं। न जाने उनके अंतिम समय में भइया पहुँच पाए या नहीं, मृत्यु की खबर तो किसी पड़ोसी ने दी थी। अब तो पड़ोसी भी सुमन के लिए अजनबी थे। कभी वे सब कितने अपने हुआ करते थे !
घर के दरवाजे पर स्त्री-पुरुषों के बीच से रास्ता बनाती सुमन ताई के पार्थिव शरीर के पास जा पहुँची। आँगन में तुलसी-चौरा के नीचे गोबर से लिपी धरती पर ताई चिरनिद्रा में सो रही थीं। चेहरे पर वही शांति, जिससे सुमन अच्छी तरह परिचित थी। सुमन को देख गोमती चाची आगे बढ़ आईं।
‘‘आ गई सुम्मी ! आखरी बखत तुझे खूब याद करती रहीं जीजी।’’
गोमती चाची के सीने पर सिर धर, सुमन रो पड़ी। गोमती चाची प्यार से उसकी पीठ सहलाती रह गईं। जी भर रो चुकने के बाद सुमन ताई के सिरहाने बैठ गई। पंडित जी गीता का पाठ कर रहे थे।
गोमती चाची ने धीमे से बताया था, ‘‘मुकुल बाहर की व्यवस्था में व्यस्त है, बहू और बच्चों का आना नहीं हो सका।’’
अम्मा-बाबूजी के लिए ताई के शव को रोकने की सलाह पर मुकुल भइया ने ‘ना’ में सिर हिला दिया–
‘‘गर्मी में इतनी देर बॉडी रखना पॉसिबिल नहीं है, पहले ही बहुत देर हो चुकी है। अगर ऐसा ही था तो मॉरचरी में ही बॉडी रखनी थी।’’
मुकुल भइया की बात सही होते भी सुमन को ‘बॉडी’ शब्द चुभ गया। कुछ देर पहले की सजीव ताई अब ‘बॉडी’ भर रह गई थीं।
बचपन से ताई की गोद में खेलते बच्चे आज बड़े हो चुके हैं। ‘राम नाम सत्य’ के साथ ताई ने इस घर से विदा ले ली।
सुमन से नहाने-धोने का आग्रह कर, गोमती चाची अन्य व्यवस्था में जुट गई थीं। बचपन के परिचितों में बस गोमती चाची और गोबरधन काका ही तो शेष थे। बाकी पड़ोसी, अपने-अपने बच्चों के साथ कहीं और जा बसे थे। सात वर्षों में इतना परिवर्तन अप्रत्याशित होते हुए भी सत्य था।
सिर से नहाकर बाहर आई सुमन को घर का सन्नाटा काटने-सा लगा। मुहल्ले की अधिकांश स्त्रियां रस्म निभा वापस नहाने-धोने जा चुकी थीं। रिश्तेदारों के नाम पर था ही कौन ? उतनी-सी देर में गोमती चाची न जाने कब नहा-धो, केतली में चाय लिए आ पहुँची थीं। केतली कमरा-आँगन धो, गोमती चाची के आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी थी।
आँचल से आँसू पोंछ चाची ने एक कप में चाय उँडेल सुमन की ओर बढ़ाई थी–
‘‘ले बेटी, इत्ती दूर से आई है, गला सूख रहा होगा। तेरी ताई होती तो....’’
सुमन हिलक कर रो पड़ी। हाथ में पकड़ा कप छलक गया। प्यार-भरा हाथ पीठ पर धर गोमती ने सुमन को सहारा-सा दिया। चाय का घूँट गले से नीचे उतारती सुमन ने आँसू पोंछ डाले। चारों ओर पसरे सन्नाटे ने सुमन को सहमा-सा दिया।
इस घर से सुमन का बचपन जुड़ा था। ताऊ-ताई, अम्मा-बाबूजी, मुकुल और आशीष भइया के बीच अकेली सुमन, सबकी दुलारी थी। हर तीज-त्योहार पर घर में कितनी रौनक हुआ करती। पड़ोस के किशन चाचा, गोबरधन काका, शांता मौसी सबके परिवार हवन में इकट्ठा होते। ताऊजी सब परिवारों के बुजुर्ग माने जाते। तब ये घर सारे मुहल्ले का केंद्र हुआ करता। धनिया आँगन को लीप-पोत चमका देती। बच्चों को वो लम्बा हवन, खासा उबाऊ लगता, पर ताऊजी के डर से सबको बैठना पड़ता। राखी पर सुमन की बन आती। राखी बाँधने के बदले रुपये देते दोनों भाई अड़ जाते–
‘‘नहीं देंगे रुपया, ये तो पैसा ऐंठने का बहाना है...।’’
आशीष भइया की उस बात पर ताऊजी नाराज़ हो जाते। वो डाँट पड़ती कि बिना हील-हवाला किए दोनों भाई चुपचाप पैसे थमा देते। बाद में भले ही उन पैसों को हथियाने के लिए वे सुमन की लाख मिन्नतें-लड़ाई करते। अपने राखी के रुपयों से सुमन को उन्हें पिक्चर तो दिखानी ही पड़ती थी।
तीज पर अम्मा और ताईजी का उत्साह देखते ही बनता। ताईजी को उस दिन बेटी की कमी खलती, पर सुमन का लाड़ कर वह अपने मन की साध पूरी कर लेतीं। गोटा लगी धानी चुन्नी के साथ सलवार सूट में सुमन की सलोनी काया खिल उठती। झूले की ऊँची पेंग पर कित्ता मजा आता। और, बस थोड़ा और ऊपर पहुँच वह सारे आकाश को मुट्ठी में समेट लेना चाहती। तीज के दिन ही लड़कों को महसूस हो पाता कि लड़की होना कितना अच्छा होता है। गौतम ने तो हद ही कर डाली थी। बहन की साड़ी पहन सुमन को उत्ती ऊँची पेंग पर आकाश छुआने चला था। डर कर सुमन की चीख निकल गई। हाथ में पकड़ा झूला न जाने कैसे छूट गया और वह धम्म से नीचे आ गिरी। माथे से निकली खून की धार पूरी चुन्नी भिगो गई। सब दहशत में आ गए थे। हजार-हजार गालियाँ देती शांता मौसी ने गौतम पर ताबड़तोड़ मुक्कों की बौछार कर दी थी। ताई मुश्किल से रोक पाई थीं–
‘‘क्यों मार रही हो शांता, बच्चे की जान ही ले डालेगी !’’
‘‘मर जाए तो जान छूटे ! अब ये क्या बच्चा है, पूरे सोलह साल का हो गया...’’
‘‘इसीलिए उसे इस तरह धुन रही हो। बहुत हो गया, अब छोड़ो उसे।’’
‘‘नहीं मौसी, गलती मेरी है। सुमन इत्ता डर जाएगी, मैंने नहीं सोचा था। मुझे माफ कर दो माँ।’’ गौतम का स्वर गम्भीर था।
‘‘बस... बस, बहुत हो गया अब भाग यहाँ से।’’ अम्मा ने गौतम को मीठी झिड़की दी थी।
सुमन का हाथ अनायास ही माथे के ऊपर की ओर पड़े दाग पर चला गया। अम्मा को हमेशा दुख सालता–‘‘लड़की के चाँद-से चेहरे पर दाग पड़ गया।’’
सुबोध ने भी एक बार कहा था, प्लास्टिक सर्जरी से इस दाग को हटवा क्यों नहीं देतीं, पर सुमन की इस तरफ कोई रुचि नहीं थी।
घाट गए लोग वापस आ चुके थे। गोमती चाची व्यस्त हो उठीं। शीला जीजी के अंतिम काम में कोई कमी-कसर न रह जाए। पंडित जी के हाथ-पाँव धुला, नीम की पत्तियाँ थमा दी गई। सबका मुँह मीठा कराने के लिए गोमती चाची ने न जाने कब मोतीचूर के लड्डू मँगा लिए थे। मुकुल भइया के चेहरे पर खीच-सी उभर आई थी।
‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं नहाने जा रहा हूँ, उसके बाद सोऊँगा, मुझे डिस्टर्ब न किया जाए...’’
‘‘पर बेटा, तेरह दिन तक तुम्हें ही सब नेम-धरम निभाना होगा... मैं यहीं इसी जगह कम्बल बिछाए देती हूँ...’’
‘‘मुझसे इस सीलन-भरे कमरे में नहीं सोया जाएगा। मैं ऊपर जा रहा हूँ। हो सके तो एक कप चाय भेज दीजिएगा।’’
गोमती चाची की बात अनसुनी कर, सुमन से चाय की फर्माइश कर, मुकुल धड़धड़ा के सीढ़ियाँ चढ़ गया था। गोमती चाची विस्मित ताकती रह गईं। शीला जीजी की आत्मा जब यहाँ आएगी, बेटे को न पा कितना तड़पेगी !
सुमन को याद आया ताऊजी के निधन के बाद पूरे तेरह दिन ताई धरती की शय्या बना, फलाहार पर रही थीं। दबी जुबान से अम्मा ने खाट पर सोने की बात कही तो ताई ने दृढ़ता से ‘ना’ में सिर हिला दिया था। आज ताई की आत्मा की शांति के लिए कौन विधि-विधान पूरे करेगा ? सुमन को तो पहले ही पराया धन कह, हर काम से अलग किया जाता रहा है। अचानक किसी परिचित आवाज ने सुमन को चौंका दिया था–
‘‘क्यों मौसी पड़ गई न सोच में। मुकुल भइया की जगह मैं तैयार हूँ, बिछाओ कुश-शय्या। हमारे मुकुल भइया सात समंदर पार से दौड़े आए हैं, कितना थक गए होंगे ये तो सोचा होता मौसी !’’
अपने आनंदी चेहरे के साथ सामने गौतम खड़ा था। कुरते-पाजामे के ऊपर शाल ओढ़े गौतम के चेहरे पर उम्र शायद अपना असर डालना भूल गई थी।
‘‘ये भली कही, बेटे की जगह पड़ोसी को रस्म निभाने की बात पहली बार सुनी।’’ गोमती का स्वर खिन्न था।
‘‘जब ताई ने मुझे बेटे की जगह दी तो ये फ़र्ज भी मुझे ही निभाना है मौसी। बोलो क्या करना है ?’’ गौतम अब गम्भीर था।
‘‘पूरे तेरह दिन धरती की शय्या पर सोकर नियम से फलाहार पर रह, पूजा-पाठ करनी होगी। तू मांस-मछली भक्षी कर सकेगा ?’’
‘‘मैं क्या कर सकूँगा, उसकी चिन्ता छोड़ दो मौसी, तुम मुकुल भइया को देखो।’’
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